सनातन धर्म की परंपरा में श्रुति (वेद) और स्मृति (धर्मशास्त्र, पुराण आदि) का स्थान सर्वोपरि है। श्रुति को अपौरुषेय और सर्वोच्च माना जाता है, जबकि स्मृति और पुराण श्रुति के व्याख्यात्मक ग्रंथ माने जाते हैं। इन दोनों की परस्पर भूमिका और महत्व को समझने के लिए एक सम्यक दृष्टिकोण आवश्यक है।
यह लेख पूर्वपक्ष और सिद्धांत के माध्यम से पुराण और श्रुति के संबंध में सनातन दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है।
पूर्वपक्ष: पुराण और श्रुति के बीच सामंजस्य का महत्व
यदि यह कहा जाए कि तीव्र मेधा वाले व्यक्ति सीधे श्रुति के अर्थ को ग्रहण कर सकते हैं, तो यह सत्य हो सकता है। परंतु सामान्य जन और मन्दबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए श्रुति का गूढ़ अर्थ समझना सरल नहीं होता।
- पुराणों का उद्देश्य: मन्दबुद्धि जनों के लिए पुराण कथाओं और प्रतीकों के माध्यम से वही गूढ़ ज्ञान प्रस्तुत करते हैं, जो श्रुति में निहित है। यदि पुराण कथाओं और सिद्धांतों का खंडन किया जाए, तो इससे पुराणों के प्रति श्रद्धा समाप्त हो सकती है। परिणामस्वरूप, समाज के उस वर्ग के लिए वेदों तक पहुँचना और भी कठिन हो जाएगा।
- समन्वय की आवश्यकता: इसलिए, श्रुतियों के साथ समन्वय करके ही पुराणों के अर्थ को ग्रहण करना चाहिए। यह दृष्टिकोण न केवल पुराणों की प्रामाणिकता को बनाए रखता है, बल्कि श्रुति के प्रति भी सम्मान सुनिश्चित करता है।
सिद्धांत: श्रुति और पुराणों का संबंध
सनातन धर्म में, यदि स्मृति या पुराण के किसी कथन में श्रुति-विरुद्ध अर्थ मिलता है, तो उसे प्रमाण मानना उचित नहीं है। इस पर निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं:
- श्रुतिविरुद्ध पुराणों का त्याग:
- यदि पुराणों के ऐसे सिद्धांतों को मान लिया जाए जो श्रुति-विरुद्ध हैं, तो इससे श्रुति-आधारित स्मृतियों, गृह्यसूत्रों, मीमांसा ग्रंथों, और वेदांगों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा।
- उदाहरण के लिए, ब्रह्मसूत्रों में सांख्य और योग के उन पहलुओं का खंडन किया गया है, जो श्रुति-विरुद्ध थे। यह स्पष्ट करता है कि केवल श्रुति-सम्मत भाग ही मान्य हैं।
- पुराणों का स्वतंत्र प्रमाण्य मान्य नहीं:
- पुराणों की प्रामाणिकता उनकी श्रुति-सम्मतता में ही निहित है। यदि कोई पुराण सिद्धांत श्रुति से विपरीत है, तो उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
- यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि श्रुति की सर्वोच्चता बनी रहे और उसके तात्पर्य को कोई भ्रमित न करे।
- तात्पर्य निर्णय में मीमांसा की भूमिका:
- श्रुति के तात्पर्य निर्णय में पूर्व और उत्तर मीमांसा की प्रमुखता है। मीमांसा दर्शन श्रुति के अर्थ को स्पष्ट और सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च साधन है।
- इस प्रकार, पुराणों के अर्थ को उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए, जैसा मीमांसा के आधार पर श्रुति का तात्पर्य तय होता है।
पुराणों की प्रासंगिकता और उपयोगिता
- सर्वसामान्य के लिए शिक्षण माध्यम:
- पुराण कथाएँ गूढ़ दार्शनिक सिद्धांतों को सरल और रोचक रूप में प्रस्तुत करती हैं। वे श्रुति के ज्ञान को जनसामान्य तक पहुँचाने का कार्य करती हैं।
- धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएँ:
- पुराण धर्म के व्यावहारिक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें धार्मिक अनुष्ठान, पर्व, और संस्कार शामिल हैं।
- समाज और धर्म में समन्वय:
- पुराण व्यक्ति और समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, किंतु उनकी प्रामाणिकता श्रुति-सम्मत अर्थ में ही मान्य होती है।
निष्कर्ष: श्रुति की सर्वोच्चता और पुराणों का स्थान
सनातन धर्म के अनुसार, श्रुति अपौरुषेय और सर्वोच्च प्रमाण है। स्मृति और पुराण का स्थान श्रुति के अनुकूल अर्थ तक सीमित है।
- समन्वय का मार्ग: श्रुति और पुराण के बीच समन्वय का मार्ग अपनाते हुए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि श्रुति की मर्यादा बनी रहे और पुराणों के माध्यम से गूढ़ वेदांत सिद्धांत जनसामान्य तक पहुँचे।
- श्रुतिविरुद्ध का खंडन: किसी भी पुराण वाक्य या सिद्धांत को, जो श्रुति-विरुद्ध हो, श्रद्धा का विषय नहीं बनाना चाहिए।
- तर्क और मीमांसा का महत्व: पुराणों के तात्पर्य को समझने के लिए तर्क, मीमांसा, और श्रुति की व्याख्या का सहारा लेना आवश्यक है।
इस प्रकार, सनातन परंपरा में पुराण और श्रुति एक-दूसरे के पूरक हैं, परंतु श्रुति की सर्वोच्चता और प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
“श्रुति-सम्मत मार्ग पर चलने वाला ही सत्य को प्राप्त करता है, और वही धर्म का रक्षक बनता है।”