विधि के फलग्रहण के सामन्य नियम

किसी भी विधि का फल या तो विधिवाक्य में ही होगा यथा अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः। जहां फल न दिया हो वहां ‘विश्वजिन्न्याय’ से स्वर्गफल मान लिया जाता है, यत्र च न फलश्रुतिस्तत्र विश्वजिन्न्याय इति।

जहां विधि में फल न हो किन्तु फलश्रुति हो वहां फलश्रुति में दिया फल अर्थवाद को ध्यान में रख ‘रात्रिसत्रन्याय’ से ग्रहणीय होता है।

जहां विधि में फल न हो किन्तु जहां दृष्टफल की सम्भवाना हो वहां अदृष्ट की कल्पना नहीं की जाती, यथा ‘स्वध्यायोऽध्येतव्य:’ यह विधिवाक्य है। ‘स्व’ अर्थात स्वशाखीयवेद का ‘अध्ययन’ अर्थात गुरुमुख से उच्चारण श्रवण कर उसका अनुच्चारण पूर्वक वेदग्रहण, आचार्योच्चारण अनुच्चारण पूर्वकं वेदाक्षरराशि ग्रहणमध्ययनम्। अत: स्वशाखीयवेद का गुरुमुख से उच्चारण श्रवण कर उसका अनुच्चारण पूर्वक वेदग्रहण करना ‘स्वध्याय’ कहलाता है।

अब ‘स्वध्यायोऽध्येतव्य:’ यह विधिवाक्य वेदाध्ययन का विधान तो करता है किन्तु इसका फल नहीं कहता, ‘प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते’ बिना प्रयोजन के तो मन्दमतियों की भी किस विषय में प्रवृत्ति नहीं होती। अत: वेदाध्ययन का क्या प्रयोजन है? यहां मीमांसा की गयी है कि वेदाध्ययन का वेदार्थ का ज्ञान स्पष्टदृष्ट फल है, अत: यहा अदृष्ट की कल्पना न करके वेदाध्यय का फल वेदार्थ ज्ञान माना गया है। यथा ‘अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः’ इसके अध्ययन से इसका अर्थ ज्ञान हो गया कि अग्निहोत्र करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अर्थज्ञान के उपरान्त अब अग्निहोत्र करेंगे तो स्वर्ग प्राप्ति होगी केवल अर्थज्ञान मात्र से नहीं।

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