पूर्णाभिषेक दीक्षा

दीक्षा प्रक्रिया का वर्णन
पूर्वप्रदत्त मंत्रो के पुरश्चरण सम्पन्न कर चुके साधक पूर्णाभिषेक के अधिकारी हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और दिव्य है। सम्पूर्ण तो नहीं तथापि कुछ भाग प्रकाशित करते हैं। अनुष्ठान में विशिष्ट शक्तिसम्पन्न बनाने हेतु गुरु एक साधक को नियुक्त करता है जो कि पूर्णाभिषिक्ताभिलाषी शिष्य के शरीर में गुरु के माध्यम से शक्तियां स्थापित करता है। गुरु मंत्र बोलता है। साधक इसके हेतु शिष्य से अनुमति लेता है, क्योंकि बिना सहमति के किसी के जीवन-तत्व को स्पर्श करना अनुचित है। अनुमति मिलने पर साधक शिष्य के अंग-अंग में देवत्व का संचार करता है।
मूलाधार से लेकर सहस्रार तक स्थित समस्त चक्रों में पचास बीजाक्षराएँ प्रतिष्ठित की जाती हैं। ये बीजाक्षर केवल ध्वनि नहीं, अपितु सृष्टि की आदिम कम्पनाएँ हैं, जिनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का उद्भव हुआ। प्रत्येक चक्र में इनका आरोपण करने से शिष्य की देह केवल देह नहीं रहती, वह दिव्य जीवन का धाम बन जाती है।
इसके उपरान्त अग्नि की दश शक्तियों का आह्वान गुप्ताङ्ग क्षेत्र में किया जाता है, जिससे शिष्य की अन्तःशक्ति प्रज्वलित होती है। उरःप्रदेश में सूर्य की द्वादश शक्तियाँ प्रतिष्ठित कर दी जाती हैं, ताकि हृदय तेज, प्रकाश और ओज से परिपूर्ण हो। कण्ठस्थल में चन्द्रमा की षोडश शक्तियाँ स्थापित की जाती हैं, जिससे वाणी में शीतलता, माधुर्य और सामञ्जस्य प्रकट हो।
गर्भाशय में ब्रह्मा की सृष्टिशक्तियाँ प्रतिष्ठित होती हैं, क्योंकि यथार्थ सृष्टि वहीं से प्रकट होती है। बहिर्गुप्ताङ्गों में विष्णु की जीवनवर्धिनी शक्तियाँ आहूत की जाती हैं, जिससे जीवन का प्रवाह सतत् और समन्वित बना रहे। कटिप्रदेश में रुद्र की दश शक्तियाँ आरोपित होती हैं, जो अनासक्त जीवन और देहान्तर के रहस्यों की प्रतीक हैं।
हृदय में ईश्वर की प्रेम और आसक्ति की चतुश्शक्तियाँ आहूत की जाती हैं, जिससे करुणा, ममता और सौहार्द शिष्य के व्यक्तित्व में पुष्पित हों। और अन्त में, सदाशिव की देशसीमा से परे संचार करनेवाली षोडश शक्तियाँ तथा त्रिपुर की कालसीमा से परे संचार करनेवाली शक्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती हैं, ताकि शिष्य समय और स्थान की सीमाओं से ऊपर उठ सके।
इस सम्पूर्ण प्रयत्न का उद्देश्य शिष्य की चैतन्यशक्ति को सहस्रार तक पहुँचाना है। जब सहस्रार में यह चैतन्य प्रकट होता है, तब वहाँ से अनुग्रह का अवतरण प्रारम्भ होता है। गुरु के दोनों चरणों से यह अनुग्रह सहस्रार में उतरता है और कालप्रवाह की अनन्त धारा में समाहित होकर शिष्य को आलोकित करता है।
उस समय सरस्वती की धैर्यदायिनी कृपा, लक्ष्मी का पोषण और संरक्षण, दुर्गा की गर्भस्थली में पूर्णता देनेवाली शक्ति—ये सब एक साथ प्रकट होते हैं। इनकी उपस्थिति शिष्य को केवल जीवन की रक्षा ही नहीं देती, बल्कि उसे निम्न योनि में पुनर्जन्म से भी मुक्त करती है।
अन्ततः साधक शिष्य के शिर पर मन्त्रों के साथ अभिषेक करता है। यह अभिषेक केवल जल का स्नान नहीं, वरन् आत्मा का स्नान है। यह स्नान शिष्य के अन्तरतम को आलोकित करता है। अनेक साधक इस क्षण समाधिसदृश अवस्था में पहुँच जाते हैं—उनकी चेतना साधारण जगत् से विलग होकर दिव्य जगत् में प्रवेश करती है।
यह अवस्था संकेत करती है कि शिष्य अब केवल साधारण जीव नहीं रहा, वह सशक्त, आलोकित और दीक्षित साधक बन चुका है। इस प्रकार का अभिषेक वास्तव में जीवन के नूतन अध्याय का आरम्भ है, जिसमें साधक का प्रत्येक श्वास अब साधना और दिव्यता से ओत-प्रोत होता है।
इसके पश्चात 49 प्रकार के अभिषेक शिष्य के गुरु द्वारा कौल साधक की सहायता से किये जाते हैं। इसके पश्चात शिष्य की आत्मा एवं देवता के मध्य एकता का ज्ञान शिष्य को दे गुरु इष्ट, शिष्य इष्ट, शिष्य के मध्य ऐक्य स्थापित करता है। उसके मस्तक पर पूजन करता है। शिष्य के इष्ट, मंत्र एवं शिष्य के मध्य कपाटभंजन पूर्वक सेतु स्थापित करता है।
इसके पश्चात कलान्यास करता है। इसके पश्चात मंत्रदान करता है। गुरुपादुका प्रदान करता है और शिष्य को पूरे गुरुमण्डल के साथ महासेतु के माध्यम से जोड देता है। शिष्य को आनन्दनाथ युक्त कोई नाम देता है। शिष्य को नवीन नाम एवं गोत्र प्राप्त हो जाता है।
शिष्य दक्षिणा आदि प्रदान करता है। उसके पश्चात हवन क्रिया एवं कौलभोजन सम्पन्न होता है।
पूर्णाभिषिक्त साधक गुरु कृपा से शक्ति सम्पन्न हुआ, शौचाशौच से मुक्त हुआ, सभी कालों में सभी अवस्था में शुद्ध रहने वाला हो जाता है। सर्वत्र स्वच्छन्द भ्रमण करता हुआ वह सर्वमंत्राधिकारी गुरु कृपा एवं देवशक्तियों की कृपा से हो जाता है।
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