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ब्रह्मविद्या और आश्रमकर्मों की अपेक्षा: एक गहन दृष्टि

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ब्रह्मसूत्र ‘सर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रुतेरश्ववत्’ इस बात की पुष्टि करता है कि ब्रह्मविद्या की उत्पत्ति में स्ववर्णाश्रमविहित कर्मों का महत्त्व है। हालाँकि, ब्रह्मविद्या फल देने में कर्मनिरपेक्ष मानी जाती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आश्रमकर्मों का अनादर या उपेक्षा की जा सकती है। आश्रमकर्मों की महत्ता शास्त्र और स्मृतियों के अनुसार, ब्रह्मविद्या के मार्ग में स्ववर्णाश्रमविहित […]

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विधि के फलग्रहण के सामन्य नियम

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किसी भी विधि का फल या तो विधिवाक्य में ही होगा यथा अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः। जहां फल न दिया हो वहां ‘विश्वजिन्न्याय’ से स्वर्गफल मान लिया जाता है, यत्र च न फलश्रुतिस्तत्र विश्वजिन्न्याय इति। जहां विधि में फल न हो किन्तु फलश्रुति हो वहां फलश्रुति में दिया फल अर्थवाद को ध्यान में रख ‘रात्रिसत्रन्याय’ से ग्रहणीय होता है। जहां

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पुराण और श्रुति: समन्वय का सिद्धांत

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सनातन धर्म की परंपरा में श्रुति (वेद) और स्मृति (धर्मशास्त्र, पुराण आदि) का स्थान सर्वोपरि है। श्रुति को अपौरुषेय और सर्वोच्च माना जाता है, जबकि स्मृति और पुराण श्रुति के व्याख्यात्मक ग्रंथ माने जाते हैं। इन दोनों की परस्पर भूमिका और महत्व को समझने के लिए एक सम्यक दृष्टिकोण आवश्यक है। यह लेख पूर्वपक्ष और सिद्धांत के माध्यम से

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मोक्ष का तात्त्विक विश्लेषण: वैकुण्ठादि लोक और ब्रह्मज्ञान

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मोक्ष (मुक्ति) का विचार भारतीय दर्शन के प्रमुख विषयों में से एक है। इसकी परिभाषा और प्रकृति पर विभिन्न मत प्रस्तुत किए गए हैं, लेकिन वैदिक परंपरा और श्रुतियों के आधार पर मोक्ष का सटीक अर्थ समझना अनिवार्य है। कई लोग वैकुण्ठ जैसे प्रसिद्ध लोकों की प्राप्ति को मोक्ष मानते हैं। परंतु, यह धारणा वैदिक

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शीघ्रफलदायनी भगवती दुर्गा

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दुर्गा कलि काल में भी शीघ्रफलदायनी है। इसके विभिन्न स्वरूपों में विभिन्न शक्तियों निहित हैं। गृहस्थ साधकों के लिए ये कल्पवृक्ष है। माहिष बलि से एवं महिष के सिर को अर्पित करने से शीघ्र प्रसन्न होती है। गढवाल में एक ​लोकोक्ति है कि भगवती को प्रसन्न करना हो तो उसे भैंस का मुण्ड अर्पित कर

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